होलिका दहन जिसे छोटी होली और होलिका दीपक के नाम से जाना जाता है। बड़ी होली के एक दिन पहले होली की पूजा होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार होलिका दहन शुभ मुहूर्त में ही करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद प्रदोष के समय जब पूर्णिमा तिथि व्याप्त हो तब होलिका पूजन करना चाहिए। भद्रा के समय होलिका दहन नहीं किया जाता है। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भद्रा मुख में होलिका दहन करने से परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। जानिए होलिका मुहूर्त का शुभ समय क्या रहेगा.
Holi 2021 |
शुभ मुहूर्त- 06:37 PM से 08:56 PM तक
अवधि- 02 घण्टे 20 मिनट
पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ- 03:27 AM बजे, 28 मार्च
पूर्णिमा तिथि समाप्त- 12:17 AM बजे, 29 मार्च
भद्रा पूँछ- 10:13 AM से 11:16 AM
भद्रा मुख- 11:16 AM से 01:00 PM
होलिका दहन से पहले होली पूजन किया जाता है।इसके लिए पूजन वाले स्थान में जाए और पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाएं। गाय के गोबर से होलिका और प्रहलाद की प्रतिमाएं बनाएं हालांकि हर जगह ऐसा नहीं किया जाता है। इसके बाद रोली, अक्षत, फूल,मीठे बताशे, कच्चा सूत, हल्दी, मूंग, गुलाल, होली पर बनने वाले पकवान, रंग, सात प्रकार के अनाज, गेंहू की बालियां, एक लोटा जल मिष्ठान आदि के साथ होलिका का पूजन करें।
भगवान नरसिंह की पूजा भी इस दिन करनी चाहिए। फिर गंध, धूप, पुष्प आदि से होलिका की पंचोपचार विधि से पूजा करें। होलिका पूजा के बाद होलिका की 3 या 7 बार परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा के दौरान कच्चा सूत होलिका में लपेट दें। अब लोटे का जल तथा अन्य पूजा सामग्री होलिका को समर्पित करें। होली पूजा के बाद परिजनों के साथ होलिका के पास एकत्र हो जाएं। कपूर या उप्पलों की मदद से होलिका में अग्नि प्रज्जवलित कर दें। इसके बाद होलिका की अग्नि में जौ या गेहूं की बाली, बताशे, चना, मूंग, चावल, नारियल, गन्ना आदि चीजें अर्पित करें।
होलिका दहन पूजन सामग्री
होलिका दहन पूजना सामग्री में गोबर से बने बड़कुले, गोबर, गंगाजल, पूजन के लिए कुछ फूल-मालाएं, सूत, पांच तरह के अनाज, रोली, मौली, अक्षत (साबुत चावल), हल्दी, बताशे, गुलाल, फल, मिठाइयां शामिल करें।
इस तरह करें होलिका की पूजा
होलिका पूजा के बाद होलिका की 3 या 7 बार परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा के दौरान कच्चा सूत होलिका में लपेट दें। अब लोटे का जल तथा अन्य पूजा सामग्री होलिका को समर्पित करें।
जानें आज के शुभ मुहूर्त और योग
अभिजीत मुहूर्त - दोपहर 12 बजकर 07 मिनट से दोपहर 12 बजकर 56 मिनट तक।अमृत काल - सुबह 11 बजकर 04 मिनट से दोपहर 12 बजकर 31 मिनट तक।ब्रह्म मुहूर्त - सुबह 04 बजकर 50 मिनट से सुबह 05 बजकर 38 मिनट तक।सर्वार्थसिद्धि योग - सुबह 06 बजकर 26 मिनट से शाम 05 बजकर 36 मिनट तक। इसके बाद शाम 05 बजकर 36 मिनट से 29 मार्च की सुबह 06 बजकर 25 मिनट तक।अमृतसिद्धि योग - सुबह 05 बजकर 36 मिनट से 29 मार्च की सुबह 06 बजकर 25 मिनट तक
कोरोना में होली...
कोरोना से बचाव के लिए मास्क सबसे जरूरी उपायों में से एक है, ऐसा तमाम वैज्ञानिक कह चुके हैं। इसलिए बहुत जरूरी हो तो जहां भी जाएं, मास्क जरूर पहन कर जाएं। हालांकि ज्यादा बेहतर तो ये होगा कि आप होली के दिन कहीं बाहर जाएं ही ना।
क्या है होलिका दहन की परंपरा
होलिका दहन में किसी वृक्ष की शाखा को जमीन में गाड़कर उसे चारों तरफ से लकड़ी, कंडे या उपले से ढककर निश्चित मुहूर्त में जलाया जाता है. इसमें छेद वाले गोबर के उपले, गेंहू की नई बालियां और उबटन जलाया जाता है ताकि वर्षभर व्यक्ति को आरोग्य कि प्राप्ति हो और उसकी सारी बुरी बलाएं अग्नि में भस्म हो जाएं. होलिका दहन पर लकड़ी की राख को घर में लाकर उससे तिलक करने की परंपरा भी है.
दूर होंगी विवाह संबंधी दिक्कतें...
मान्यता है कि जिन जातकों की शादी नहीं हो रही है या फिर किसी कारण विलंब उत्पन्न हो रहा है तो होली के दिन शिव मंदिर में पूजा करने से लाभ हो सकता है। इसके साथ ही शिवलिंग पर पान, सुपारी और हल्दी की गांठ भी अर्पित करें। शादी की परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए होलिका दहन के दौरान पांच सुपारी, पांच इलायची, मेवे, हल्दी की गांठ और पीले चावल लें जाए और इसकी पूजा कर इसे घर में देवी के सामने रख दें। ऐसा करने से शादी में आने वाली बाधाएं दूर हो जाती है और जल्द ही विवाह के योग बन जाते हैं।
होलिका दहन का शुभ मुहूर्त
28 मार्च की शाम 06:37 पी एम से 08:56 पी एम तक का समय होलिका दहन के लिए सबसे शुभ रहेगा। यानी होलिका दहन पूजा के लिए आपके पास 02 घण्टे 20 मिनट का समय है। भद्रा दोपहर 1 बजे तक समाप्त हो चुकी होगी। पूर्णिमा तिथि 28 मार्च को 03:27 AM से शुरू होकर 29 मार्च को 12:17 AM तक रहेगी।
क्या है मान्यता...
बड़ी होली से एक दिन पहले होलिका दहन पूजा होती है। ये पूजा शाम के समय की जाती है। इस दिन आस-पास के लोग इकट्ठा होकर होलिका जलाते हैं। ये पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि होलिका दहन की आग में अपने अहंकार और बुराई को भस्म कर देना चाहिए।होली मन के विस्तार का पर्व है। यह नाचने-गाने, हंसी-ठिठोली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी है। तभी तो होली की रंगीली छटा में मनमुटाव या आपसी वैर-विरोध समाप्त हो जाते हैं। हमारे लंबे-चौड़े साहित्यिक इतिहास में न केवल संस्कृत के रससिद्ध काव्यकारों ने बल्कि देशज भाषाओं के अनेक भक्त-कवियों ने भी राधा कृष्ण के रंगीले होली प्रेम में आसक्त होकर ऐसे मनोहारी चित्र खींचे, जिनको देखकर लगता है कि वे कहीं गोपी-भाव से तो कहीं स्वयं ही राधा बनकर उस रस-रूप के महासागर रंगीले कन्हैया के रंग में सराबोर हो रहे हैं। इन कवियों की वृत्ताकार काव्य यात्रा का केंद्र है-राधा-कृष्ण का होली प्रेम और ब्रज के अनूठे फागुनी रंग होली वैदिक परंपरा से चले आ रहे 4 त्योहारों में एक है। एक तथ्य बहुत ही अल्पज्ञात है कि होली ऋषि और कृषि से जुड़ा पवित्र उत्सव है, जो कदाचित सृष्टि के आदिकाल से ऋषियों और कृषकों द्वारा मनाया जाता रहा है। आश्रमों में ऋषि और वटुक फाल्गुन में सामवेद के मंत्रों का गान करते थे, वहीं नई फसल के पक आने पर किसान रंग-बिरंगी होली खेलते थे। शास्त्र परंपरा ने होली को अग्नि से मिलाया। खेतों में चमचमा रही जौ-गेहूं की बालियों को सबसे पहले अग्नि देवता को समर्पित किया जाता है। फिर होली की अग्नि-ज्वाला में नवीन धान्य को पकाकर उन पकी हुई बालियों को प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। स्पष्ट है, होली हमारे जीवन को चलाने वाला उत्सव भी है।
होली पर प्रेम की कैसी आंख-मिचौनी है कि चहुं ओर होली का हुडदंग है। होली की उमंग और मादकता ने क्या स्त्री और क्या पुरुष, सभी की लाज हटा दी है। ब्रज में तो एक भी ऐसी नवेली नारी नहीं बची जो होली पर नटखट कन्हैया के प्रेम में न रची हो। अनूठी होली ने पूरे संसार को बावला बनाकर रख दिया है। एक गोपी कृष्ण के सांवरे रंग में ऐसी रंगी कि श्यामसुंदर की सलौनी सूरत को इकटक निहारते हुए कान्हा से याचना करती है, जिसे भक्त रसखान देख रहे हैं-खेलिए फाग निसंक आज, मयंक मुखी कहे भाग हमारौ तेहु गुलाल छुओ कर में, पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ। वीर की सौंह हौं देखि हौं कैसे, अबीर तौ आंखि बचाय कै डारौ।।
होली के रस में सारे रसिकजन सराबोर हो रहे हैं। डगर-डगर और गली-गली होली की मस्ती में चहक रही है। सुंदर युवतियों की टोलियां अबीर-गुलाल लेकर होली खेलने निकल पड़ी है तो नौजवानों का टोला भी अपनी पूरी तैयारी में हैं। दिव्य अध्यात्म में आज सब शरीर की सुध-बुध खो बैठे हैं। रसिकशिरोमणि श्रीकृष्ण के साथ होली खेलने की आत्मा की साधना अब पूरी होगी। फाग का मनोरथ पूरा होगा। संभवत: यह सोचते हुए ही द्वापर में एक गोपी श्रीकृष्ण को ढूंढने अकेली ही निकल पड़ी पर कन्हैया तो अंर्तयामी जो ठहरे। बस, मन से पुकारा और आ गए। श्रीकृष्ण को पाने के लिए छटपटाती भाग्यशालिनी है वह गोपी, जो प्रेम-रस में सराबोर होकर कृष्ण-कन्हैया के मधुर रंग को प्राप्त कर रही है।
ब्रज की रंगीली गलियों में रस भरी होली हो रही है। रंग-बिरंगे परिधानों में सजे गोप-गोपियों का समूह कन्हैया का अनुराग-रस पीने निकल पड़ा। होली की धमा-चौकड़ी से सारा ब्रज क्षेत्र पुलकित हो उठा। रसिकों से सुनी यह कथा कितना मन मोहती है कि होली पर गोकुल गांव में बेचारी बाहर की कोई नई बहू आई। भला वो क्या जाने कन्हैया की होली के रीति-रिवाजों को! जिधर भी जाए उधर ही होली का ऊधम। सांवरिया कन्हैया तो जगह-जगह ठिठोली करते फिर रहे हैं। संत नागरीदास ने इसी अनूठे फाग के रंग में भीगकर इस कथा का बड़ा सुंदर चित्रण किया-और हूं गांव सखी बहुतैं पर गोकुल गांम कौ पैड़ो ई न्यारौ।।
रसखान, नागरीदास तथा कई कृष्णभक्त कवियों ने होली के बड़े ही सरस वृत्तांत लिखे हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि श्रीकृष्ण हाथ में पिचकारी लेकर हम सभी जीवों को अपने आनंदरस के रंग में रंगने हेतु मोरचा संभाले बैठे है। जब उनकी आनंद की पिचकारी सतरंगी धार छोड़ेगी तो भला क्या मजाल कि कोई बचकर निकल जाए! ऐसी धार पड़ेगी कि एक ही पिचकारी में जन्म-जन्मांतर रंगीले हो जाएंगे।
होली एक दिन या पखवाड़े का उत्सव नहीं हैं। यह पर्व तो प्यार के रंगों और आनंद के गीतों का है, एक-दूसरे में प्रेम-रंग रंगने का है। अब भले ही बदलते परिवेश की काली परछाई हमारी आत्मा से जुड़े परंपरा के इन अनूठे रंगों को बदरंग करने पर तुली है, परंतु यह सनातन रंग तो ऐसा है, जिसे बिना आंखों वाले सूरदास भी पहचानते है-चढ़त न दूजो रंग ।
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